भारत के संविधान की प्रस्तावना , उसकी विशेषता : हर व्यक्ति को पढ़ने व समझने की जरूरत (डॉ.अशोकशिरोडे)

भारत के संविधान की प्रस्तावना, उसकी  विशेषता : हर व्यक्ति को पढ़ने व समझने की जरूरत (डॉ. अशोक शिरोडे)             

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      प्रस्तावना की शुरुआत 'हम भारत के लोग' से शुरू होती है और '26 नवंबर 1949 अंगीकृत' पर समाप्त होती है।

     जब भी बात भारत के संविधान की होती है तब इसमें सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष आता है प्रस्तावना का क्योंकि यही एक चीज़ है जो कि पूरे संविधान की तस्वीर को बयां करती है । सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है "जब भी कभी संविधान में किसी भी प्रकार का संशोधन होगा और अगर वो प्रस्तावना के उद्देश्य को पूरा नहीं करता तो ऐसे संशोधन को शून्य घोषित किया जा सकता है," इसीलिये  कहा गया है कि संविधान की प्रस्तावना पूरे संविधान का आधार है।
    स्वतंत्र भारत के संविधान की प्रस्तावना प्रभावी शब्दों की भूमिका से बनी हुई है। इसमें बुनियादी आदर्श, उद्देश्य और दार्शनिक भारत के संविधान की अवधारणा शामिल है। ये संवैधानिक प्रावधानों के लिए तर्कसंगतता या निष्पक्षता प्रदान करते हैं। प्रस्तावना में ही वो सब कुछ निहित है जो भारत के सभी व्यक्तियों को स्वतंत्रता का अनुभव कराती है। कुल मिलाकर प्रस्तावना में संविधान का पूरा सार है। इसलिए कहते हैं कि प्रस्तावना संविधान की आत्मा है।
    वर्तमान समय के राजनीतिक व सामाजिक हालातों में देश के हर व्यक्ति को, बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक, मजदूर - किसान से लेकर कर्मचारी, अधिकारियों, महिलाओं को संविधान की प्रस्तावना को पढ़ने  व समझने की ज्यादा जरूरत है। धार्मिक तथा सामाजिक स्तर पर जिस तरह देश की एकता विखण्डित होती दिख रही है, उसमें  इससे बाहर निकलने की एक आस व शक्ति भारतीय संविधान की प्रस्तावना में नजर आती है। सजग व समझदार लोगों को आगे बढ़कर आमजन तक जाकर प्रस्तावना को बताने व समझाने की जरूरत है। प्रत्येक घर की मुख्य दीवार पर प्रस्तावना को फ्रेम कर लगाना, उस पर बात करना जरूरी है।
         जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को एक उद्देशिका पेश की थी जिसमें संविधान की आत्मा कैसी हो, उसकी एक झलक मिलती थी। नेहरू की इसी उद्देशिका से जुड़े प्रस्ताव को संविधान निर्माण के अंतिम चरण में प्रस्तावना के रूप में शामिल कर लिया गया। यही कारण है कि प्रस्तावना  को उद्देशिका भी कहा जाता है।
        भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक प्रस्ताव है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों के सेट शामिल हैं। इसमें नागरिकों के आदर्श को समझाया गया है। प्रस्तावना / उद्देशिका को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालती है।

उद्देशिका में मौजूद विभिन्न शब्द एवं उनके अर्थ -
      भारत के संविधान की उद्देशिका में प्रयोग किए गए शब्दों के अर्थ को समझना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यह शब्द न केवल भारत के संविधान के स्वभाव को दर्शाते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि भारत, किस प्रकार के राष्ट्र के रूप में कार्य करेगा।
    'हम, भारत के लोग' एवं 'प्रभुत्व-संपन्न': 
  "हम, भारत के लोग" इस बात पर जोर देता है कि यह संविधान, भारतीय लोगों द्वारा एवं उनके लिए निर्मित है और किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा यह संविधान हमे नहीं सौंपा गया है। हमारा संविधान, 'संप्रभुता' की अवधारणा पर भी जोर देता है जिसके बारे में महान पॉलिटिकल दार्शनिक एवं विचारक, रूसो द्वारा भी बात की गयी थी। 'प्रभुत्व-संपन्न' होने का अर्थ, सभी शक्ति लोगों से निकलती है और भारत की राजनीतिक प्रणाली, लोगों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होगी।

   संविधान की शक्तियों की श्रोत जनता है
    हमारे संविधान की उद्देशिका में पहली बात यह स्पष्ट है कि संविधान की सभी शक्तियां का श्रोत भारत के लोग ही हैं और प्रस्तावना इस बात की घोषणा करती है कि भारत एक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र राष्ट्र है और भले ही राजनीतिक शक्तियां बदलती रहें और संविधान के ही अनुच्छेद 368 के तहत विधायिका समय की मांग के अनुसार संविधान में संशोधन करती रहें मगर संविधान के मूल तत्वों या उसकी आत्मा के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं कर सकता। इसके साथ ही हमारा संविधान सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करता है तथा राष्ट्र की एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा देता है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक प्रकरणों में यह स्पष्ट कहा है कि "प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है, जिसका अर्थ यह है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि ऐसे संशोधन से संविधान का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है।"

 "समाजवादी"शब्द के व्यापक व गहन अर्थ           इसे एक ऐसे आर्थिक दर्शन के रूप में समझा जा सकता है जहां उत्पादन और वितरण के साधन राज्य के स्वामित्व में होते हैं। हालाँकि, भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया है, जहां राज्य के अलावा, निजी क्षेत्र के लोगों द्वारा उत्पादन का कार्य किया जा सकता है। यह एक राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है।

     समाजवादी शब्द का आशय यह है कि ‘ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनों, पूँजी, जमीन, संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य हो। सार्वजनिक संस्थानों को विनिवेश कर निजी हाथों में सौपना  व  पूंजीपतियों पर निरन्तर बढ़ती जा रही निर्भरता संविधान के कुछ मूल तत्वों से भटकाने का ही संकेत है। उत्पादन में जोखिम, भूमि और पूंजी के समान ही श्रम का महत्व होता है। लेकिन श्रम शक्ति को सम्मान देने के बजाय पूंजी का गुलाम बनाया जा रहा है। 
     सामाजिक दर्शन (Socialist Philosophy) के रूप में समाजवाद, सामाजिक समानता (democratic Ssocialism) पर अधिक बल देता है।

       पंथ निरपेक्ष -
       प्रस्तावना सविधान की शुरुआत है और इस शुरुआत की शुरुआत भी ’’हम भारत के लोग’’ से होती है। हम शब्द का अभिप्राय किसी एक धर्म या जाति से नहीं बल्कि इस देश में निवास करने वाले हर एक धर्मावलम्बी और जाति से है। संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) जोड़े गए। हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।
      उद्देशिका में पंथनिरपेक्षता की परिकल्पना जिस प्रकार से की गयी है उसका अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और सभी व्यक्ति समान रूप से अपने विवेक की स्वतंत्रता के हकदार होंगे और वे अपनी पसंद के धर्म को अपनाने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार प्राप्त करेंगे। 
      एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 SCC (3) 1 के मामले में शीर्ष अदालत की 9-न्यायाधीश की पीठ ने पंथनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में अभिनिर्णित किया था।

     लोकतांत्रिक (लोकतंत्रात्मक) -
     यह इंगित करता है कि संविधान ने सरकार का एक ऐसा रूप स्थापित किया है जो लोगों की इच्छा से अपना अधिकार प्राप्त करती है। सत्ता चलाने वाले शासक, लोगों द्वारा चुने जाते हैं और उनके प्रति जिम्मेदार होते हैं।
     सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक प्रकरण में कहा गया है, "हमारे संविधान में, लोकतंत्रात्मक - गणराज्य का अर्थ है, 'लोगों की शक्तियाँ है।" इसका संबंध, लोगों द्वारा शक्ति के वास्तविक, सक्रिय और प्रभावी अभ्यास से है। दरअसल लोकतंत्र, एक बहु-पक्षीय प्रणाली है, यह सरकार के प्रशासन को चलाने में लोगों की राजनीतिक भागीदारी को संदर्भित करता है। यह उन मामलों की स्थिति को बताता है जिसमें प्रत्येक नागरिक को राजव्यवस्था में समान भागीदारी के अधिकार का आश्वासन दिया गया है।

       गणराज्य -                                              भारतीय संविधान के अंतर्गत लोकतंत्रीय गणतंत्र को अपनाया गया है। एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य एक ऐसी इकाई है, जिसमें राज्य का प्रमुख, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा 5 वर्षों के लिए किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का पद वंशानुगत नहीं है। भारत का प्रत्येक नागरिक देश का राष्ट्रपति बनने के योग्य है।                       गणतंत्र के अर्थ में दो बातें शामिल है:        - पहली यह कि राजनीतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने के बजाय लोगों के हाथ में होती हैं।                             - दूसरी यह कि किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति। इसलिये हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिये खुला होगा।।                            गौरतलब है कि 'लोकतंत्रात्मक' एवं 'गणराज्य' शब्दों को अलग - अलग समझने के बजाये एक साथ समझा जाना चाहिए।

      न्याय - 
   न्याय का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेख है, जिसे तीन भिन्न रूपों में देखा जा सकता है- सामाजिक न्याय, राजनीतिक न्याय व आर्थिक न्याय।
- सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव-मानव के बीच जाति, वर्ण के आधार पर भेदभाव न माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो।
- आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन संपदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकृत ना हो जाए।
- राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अंतर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो, चाहे वह राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का अधिकार।
     स्वतंत्रता - 
     यहाँ स्वतंत्रता का तात्पर्य नागरिक स्वतंत्रता से है। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है। यह व्यक्ति के विकास के लिये अवसर प्रदान करता है।
      समता - 
   भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की क्षमता प्रदान करती हैं जिसका अभिप्राय है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने का उपबन्ध है।
     व्यक्ति की गरिमा -

इसके तहत भारतीय जनता में गरिमा की बात की जाती है. जिसमें भारतीय जनता को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है।

     राष्ट्र की एकता, अखंडता -                         भारत विविधता में एकता वाला देश है। जो भारत की विशेषता है. जिसे बनाए रखने के लिए प्रस्तावना में कहा गया है।

     बन्धुत्व की भावना -
     प्रस्तावना में बंन्धुत्व का भी उल्लेख किया गया है ताकि हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता मजबूत बनी रहे। इसमें पहली बात व्यक्ति का सम्मान और दूसरी देश की एकता और अखंडता। मौलिक कर्तव्य में भी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। सुप्रीम कोर्ट एकानेक बार कह चुका है कि आइपीसी की धारा 124-ए का खुले आम दुरुपयोग हो रहा है। इससे देश में सरकार के विरोध को राजद्रोह मान कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है। जबकि यह कानून अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशवादी शासन को बचाने के लिये बनाया था। इस कानून को समाप्त करने पर विचार तक नहीं हो रहा है।           यह कहना प्रत्येक दृष्टिकोण से उचित है कि भारत के संविधान की उद्देशिका, अपने आप में पूर्ण है क्योंकि यह कुछ हद तक अन्य देशों के संविधान की उद्देशिका से अलग है क्योंकि इसमें इश्वर, इतिहास या पहचान का कोई बोझ नहीं डाला गया है। इसके द्वारा भारत के लोगों से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का वादा किया गया है।  भारतीय संविधान की उद्देशिका नागरिकों को यह स्वतंत्रता देती है कि वह अपने कृत्यों, अपनी आस्था, अपने विचारों इत्यादि के सम्बन्ध में उचित चुनाव कर सकते हैं।

     संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) स्पष्ट रेखांकित करती है कि एक राष्ट्र की एकता, केवल समूहों की एकजुटता भर नहीं है। यह बताती है कि एक वास्तविक एकता तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन दिया जाए।
     संविधान की प्रस्तावना, स्वतंत्रता का एक चार्टर है। इसकी मूलभूत संरचना प्रगतिशील है जो इसे सबसे अलग बनाती है। आवश्यकता इस बात की है कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति प्रस्तावना में निहित भावना को समझे व  अंगीकृत करे, उसके प्रकाश में अपना आचरण व व्यवहार करें।

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